गुरुवार, 24 नवंबर 2011

उफ्फ़ ये मंहगाई

'हमने माना कि दिल्ली में रहेंगे, लेकिन खावेंगे क्या ? 
साहब अब तो दिल्ली में रहना ही दुस्वार होए जात है, कमबख्त ठंडा अभी से काट खाने को दौड़ रही है ! अब का पूरी रात भूखे पेट कीर्तन करना पड़ेगा ?  भूखे पेट कहाँ भजन होत है साहिब ! 
आप जो भी करिए साहिब मुझे तो नीद नहीं आवत है आजकल रातों में !  चांदर में छेद जो ह्योई गए है ...पुरानी जो हो गई है !
वाह रे मेरे देश कोई तो दूसरों का घर जलाए किसी के घर चुल्हा भी न जल पाए !  अब क्या साहिब मेरे जैसे गरीब चोरी नहीं करेंगे, लुटमारी ना करेंगे तो खावेंगे क्या ?  घर का चुल्हा जलाने के लिए पैंसे चाहिए पैंसे !  न कि ईमानदारी ! 
मुझे तो लागे है कि अब ईमान बेचन का बख्त आ गयिवा तुम भी तयार रही ! 
  
 आँखों में अमीरी के ख्वाब ! और जेब में फूटी कौड़ी नहीं ! '   

*मनीष मेहता !

चित्र- गूगल से !